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इ॒ष्टोऽअ॒ग्निराहु॑तः पिपर्त्तु नऽइ॒ष्टꣳ ह॒विः। स्व॒गेदं दे॒वेभ्यो॒ नमः॑ ॥५७ ॥

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पद पाठ

इ॒ष्टः। अ॒ग्निः। आहु॑त॒ इत्याहु॑तः। पि॒प॒र्त्तु॒। नः॒। इ॒ष्टम्। ह॒विः। स्व॒गेति॑ स्व॒ऽगा। इ॒दम्। दे॒वेभ्यः॑। नमः॑ ॥५७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:57


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (हविः) संस्कार किये पदार्थों से (आहुतः) अच्छे प्रकार तृप्त वा हवन किया (इष्टः) सत्कार किया वा आहुतियों से बढ़ाया हुआ (अग्निः) यह सभा आदि का अध्यक्ष विद्वान् वा अग्नि (नः) हमारे (इष्टम्) सुख वा सुख के साधनों को (पिपर्त्तु) पूरा करे वा हमारी रक्षा करे (इदम्) यह (स्वगा) अपने को प्राप्त होनेवाला (नमः) अन्न वा सत्कार (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये हो ॥५७ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य अग्नि में अच्छे संस्कार से बनाये हुए जिस पदार्थ का होम करते हैं, सो इस संसार में बहुत अन्न का उत्पन्न करनेवाला होता है, इस कारण उससे विद्वान् आदि सत्पुरुषों का सत्कार करना चाहिये ॥५७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(इष्टः) सत्कृत आहुतिभिर्वर्धितो वा (अग्निः) सभाद्यध्यक्षो विद्वान् पावको वा (आहुतः) समन्तात् तर्पितो हुतो वा (पिपर्त्तु) पालयतु पूरयतु वा (नः) अस्मानस्माकं वा (इष्टम्) सुखं तत्साधनं वा (हविः) हविषा। संस्कृतद्रव्येण विभक्तिव्यत्ययः (स्वगा) यत्स्वान् गच्छति प्राप्नोति तत् स्वगा। अत्र विभक्तेः सुपां सुलुग्० [अष्टा०७.१.३९] इत्याकारादेशः (इदम्) (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (नमः) अन्नं सत्कारो वा ॥५७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हविराहुत इष्टोऽग्निर्न इष्टं पिपर्त्तु नः पिपर्त्तु वा इदं स्वगा नमो देवेभ्योऽस्तु ॥५७ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैरग्नौ यत् सुसंस्कृतं द्रव्यं हूयते यदिह बह्वन्नकारि जायतेऽतस्तेन विद्वदादीनां सत्कारः कर्त्तव्यः ॥५७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसे अग्नीमध्ये ज्या उत्तम पदार्थांचा होम करतात. त्यामुळे जगात पुष्कळ अन्न उत्पन्न होते म्हणून अन्न इत्यादींनी विद्वान सत्पुरुषांचा सत्कार केला पाहिजे.